रोज़ साहिल पे खड़े होके यही देखा है
Wednesday, September 3, 2008
रोज़ साहिल पे खड़े होके यही देखा है
शाम का पिघला हुआ सुर्ख-सुनहरी रोगन
रोज़ मटियाले-से पानी में यह घुल जाता है
रोज़ साहिल पे खड़े होके यही सोचा है
में जो पिघली हुई रंगीन शफक का रोगन
पोंछ लू हाथों पे
और चुपके से इक बार कभी
तेरे गुलनार से रुखसारों पे छप से मल दूँ
शाम का पिघला हुआ सुर्ख-सुनहरी रोगन
-गुलज़ार
0 comments:
Post a Comment