तेरा नाम ही मुकम्मल है
Saturday, August 30, 2008
नज़्म उलझी हुयी है सीने में,
मिसरे अटके हुए हैं होटों पे,
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं,
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
कब से बैठा हूँ मैं जानम,
सादे कागज़ पे लिखकर नाम तेरा,
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है,
इससे बेहतर भी और नज़्म क्या होगी
मिसरे अटके हुए हैं होटों पे,
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं,
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
कब से बैठा हूँ मैं जानम,
सादे कागज़ पे लिखकर नाम तेरा,
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है,
इससे बेहतर भी और नज़्म क्या होगी
-गुलज़ार
2 comments:
Naam hi mukammal rahega hamesha. Mere liye, tere liye hum sab ke liye- jo aisi baarish ke dinon baithke kho jaate hain kahin door.
kavita acchi hai... kis k liye likha hua hai jo mukammal hai?
hume intezaar rahega jawaab ka...
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