तेरा नाम ही मुकम्मल है

Saturday, August 30, 2008

नज़्म उलझी हुयी है सीने में,
मिसरे अटके हुए हैं होटों पे,
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं,
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह

कब से बैठा हूँ मैं जानम,
सादे कागज़ पे लिखकर नाम तेरा,
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है,
इससे बेहतर भी और नज़्म क्या होगी
-गुलज़ार

2 comments:

Rakhi August 30, 2008 at 3:54 PM  

Naam hi mukammal rahega hamesha. Mere liye, tere liye hum sab ke liye- jo aisi baarish ke dinon baithke kho jaate hain kahin door.

Anuja August 31, 2008 at 1:29 PM  

kavita acchi hai... kis k liye likha hua hai jo mukammal hai?

hume intezaar rahega jawaab ka...

क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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