तेरी आंखों से ...
Wednesday, September 3, 2008
तेरी आँखों से ही खुलते हैं सवेरों के उफाक
तेरी आंखों से ही बंद होती है ये सीप की रात
तेरी आँखें हैं या सजदे मैं है मासूम नमाज़ी
पलकें खुलती हैं तो यूं गूँज के उठती है नज़र
जैसे मन्दिर से जरस की चले नमनाक हवा
और झुकती हैं तो बस जैसे अजान ख़त्म हुई हो
तेरी ऑंखें, तेरी ठहरी हुई ग़मगीन सी ऑंखें
तेरी आँखों से ही तखलीक हुई है सच्ची
तेरी आँखों से ही तखलीक हुई है ये हयात
-गुलज़ार
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