कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

Wednesday, September 3, 2008

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है...

के जिंदगी तेरी जुल्फों की नर्म छाओं में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुक़ददर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी

अजब न था के मैं बेगाना-ऐ-आलम हो कर
तेरे जमाल की रानाईयों में खोया रहता
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीम-बार आँखें
इन्हीं हसीं फसानों में माहो रहता

पुकारतीं मुझे जब तल्खियां ज़माने की
तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बराहना-सर, और मैं
घनेरी जुल्फों के साए में छुप के जी लेता

मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तेरा गम, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह जिंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी गुज़ार राहों से
मुहीब साए मेरी सिम्ट बढाते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुर होल खाराज़ारों से

न कोई जादा न मंजिल न रोशनी का सुराग
भटक रही है खालाओं में जिंदगी मेरी
इन्हीं खालाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हम-नफस मगर यूं ही

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
-साहिर

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बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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