आया ही नहीं हमको ...

Monday, June 20, 2011

नज़्म - बशीर बद्र
आया ही नहीं हमको आहिस्ता गुज़र जाना
शीशे का मुक़द्दर है टकरा के बिखर जाना

तारों की तरह शब के सीने में उतर जाना
आहट न हो क़दमों की, इस तरह गुज़र जाना

नशे में सम्भलने का फन यौं ही नहीं आया
इन जुल्फों से सीखा है लहरा के सँवर जाना

भर जायेंगे आँखों में आँचल से बंधे बादल
याद आएगा जब गुल पर शबनम का बिखर जाना

हर मोड़ पे दों आँखें हम से यही कहती हैं
जिस तरह भी मुमकिन हो तुम लौट के घर जाना

ये चाँद सितारे तुम औरों के लिए रख लो
हम को यहीं जीना है हम को यहीं मर जाना

जब टूट गया रिश्ता सरसब्ज़ पहाड़ों से
फिर तेज़ हवा जाने हम को है किधर जाना

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तेरे उतारे हुए दिन ...

Tuesday, January 11, 2011



तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं lawn में अब तक
न वो पुराने हुए हैं
न उन का रंग उतरा…
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलाइची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी coffee देता है
गिलेरिओं को बुला कर खिलाता हूँ biscuit
गिलेरियाँ मुझे शक की नज़र से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस जानती होंगी….
कभी कभी जब उतरती है chill शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर lawn में रुक कर
सफेद और गुलाबी मुसुन्ढ़े के पौधों में घुलने लगती है
के जैसे बर्फ का टुकरा पिघलता जाये whisky में
मैं scarf दिन का गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन के अब भी मैं
तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन
टंगे हैं lawn में अब तक
वो पुराने हुए हैं
उन का रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी

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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो ...

Monday, January 3, 2011

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की नदियाँ बहती,
रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती,
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये,
ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है,
असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है,
हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही
कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका,
उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर,
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे
तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी
कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर
‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का
अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’,
सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं,
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी सिन्दूरी,
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने;
जब मूर्तिमती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का
श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं,
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

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आये कुछ अब्र ...

Sunday, February 14, 2010

नज़्म - फै अहमद 'फैज़'


आये कुछ अब्र कुछ शराब आये
उस के बाद आये जो अज़ाब आये

[अब्र: Cloud; अज़ाब: Pain]

बाम-ए-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साकी में आफताब आये

[बाम--मीना: Heaven's terrace; माहताब: Moonlight; आफताब: Sunshine]

हर रग-ए-खून में फिर चराघाँ हो
सामने फिर वो बेनकाब आये

[चराघाँ : Lighting]

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आये

न गाई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इन्किलाब आये

[सरदारी: Tyranny]

इस तरह अपनी खामोशी गूँजी
गोया हर सिम्ट से जवाब आये

[गोया: As If; सिम्त: Direction]

'फैज़' थी राह सर-ब-सर मंजिल
हम जहाँ पहुंचे कामयाब आये

[
sar-ba-sar : Adjacent]

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वो आई थी क्या?

Wednesday, January 27, 2010

नज़्म - गुलज़ार
मैं रोज़गार के सिलसिले में
कभी कभी उसके शहर जाता हूँ तो
गुज़रता हूँ उस गली से
वो नीम तरीक सी गली
और उसी ने नुक्कड़ पे ऊँघता सा वो पुराना खम्बा
उसी के नीचे तमाम शब इंतज़ार करके
मैं छोड़ आया था शहर उसका
बहुत ही खस्ता सी रौशनी की छड़ी को टेके
वो खम्बा अब भी वहीँ खड़ा है
फुतूर है ये मगर
मैं खम्बे के पास जा कर
नज़र बचा के मोहल्ले वालों की
पूछ लेता हूँ आज भी ये
वो मेरे जाने के बाद भी यहाँ आई तो नहीं थी
वो आई थी क्या ?

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क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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