वो आई थी क्या?
Wednesday, January 27, 2010
नज़्म - गुलज़ार
मैं रोज़गार के सिलसिले मेंकभी कभी उसके शहर जाता हूँ तो
गुज़रता हूँ उस गली से
वो नीम तरीक सी गली
और उसी ने नुक्कड़ पे ऊँघता सा वो पुराना खम्बा
उसी के नीचे तमाम शब इंतज़ार करके
मैं छोड़ आया था शहर उसका
बहुत ही खस्ता सी रौशनी की छड़ी को टेके
वो खम्बा अब भी वहीँ खड़ा है
फुतूर है ये मगर
मैं खम्बे के पास जा कर
नज़र बचा के मोहल्ले वालों की
पूछ लेता हूँ आज भी ये
वो मेरे जाने के बाद भी यहाँ आई तो नहीं थी
वो आई थी क्या ?
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