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अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता

Tuesday, September 30, 2008

नज़्म - दाग देहलवी
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

कोई फ़ितना था क़यामत ना फिर आशकार होता
तेरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता

जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूठे वादे करता
तुम्हीं मुन्सिफ़ी से कह दो तुम्हे ऐतबार होता

ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है के आखिर मेय-ए-ख़ुशगवार होता

ना मज़ा है दुश्मनी में ना ही लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता

ये मज़ा था दिल्लगी का के बराबर आग लगती
ना तुझे क़रार होता ना मुझे क़रार होता

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ऐतबार होता

ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है के हो चारासाज़ कोई
अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता

गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट ना देता जो ना बादाख़्वार होता

मुझे मानते सब ऐसा के उदूं भी सजदा करते
दर-ए-यार काबा बनता जो मेरा मज़ार होता

तुम्हे नाज़ हो ना क्योंकर के लिया है “दाग़” का दिल
ये रक़म ना हाथ लगती ना ये इफ़्तिख़ार होता

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

Monday, September 15, 2008

नज़्म - दाग़ देहलवी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी

चाहिए पैगामाबर दोनों तरफ़
लुत्फ़ क्या जब दू-बा-दू होने लगी
[पैगामाबर : messenger; दू-बा-दू : face to face]

मेरी रुसवाई की नौबत आ गई
उनकी शोहरत कू-बा-कू होने लगी
[रुसवाई : बदनामी; कू-बा-कू : गली-गली]

नाज़िर बड़ गई है इस कदर
आरजू की आरजू होने लगी
[नाजिर : seeing observant]

अब तो मिल कर देखिये क्या रंग हो
फिर हमारी जुस्तजू होने लगी

'दाग' इतराए हुए फिरते हैं आप
शायद उनकी आबरू होने लगी

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क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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