रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

Monday, September 15, 2008

नज़्म - दाग़ देहलवी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी

चाहिए पैगामाबर दोनों तरफ़
लुत्फ़ क्या जब दू-बा-दू होने लगी
[पैगामाबर : messenger; दू-बा-दू : face to face]

मेरी रुसवाई की नौबत आ गई
उनकी शोहरत कू-बा-कू होने लगी
[रुसवाई : बदनामी; कू-बा-कू : गली-गली]

नाज़िर बड़ गई है इस कदर
आरजू की आरजू होने लगी
[नाजिर : seeing observant]

अब तो मिल कर देखिये क्या रंग हो
फिर हमारी जुस्तजू होने लगी

'दाग' इतराए हुए फिरते हैं आप
शायद उनकी आबरू होने लगी

4 comments:

Unknown January 19, 2017 at 7:02 AM  

नाउम्मीदी बढ़ गयी है इस कदर **

Unknown January 19, 2017 at 7:04 AM  

दाग़ इतराए हुए फिरते हैं आज **

Unknown January 19, 2017 at 7:04 AM  

दाग़ इतराए हुए फिरते हैं आज **

Unknown January 19, 2017 at 7:04 AM  

नाउम्मीदी बढ़ गयी है इस कदर **

क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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