गुलों में रंग भरे, बाद-ऐ-नौबहार चले

Tuesday, September 16, 2008

नज़्म : फैज़ अहमद फैज़

गुलों में रंग भरे, बाद-ऐ-नौबहार चले
चले भी आओ की गुलशन का कारोबार चले
[बाद : Breeze; नौबहार : Spring]

क़फ्फास उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ऐ-खुदा आज ज़िक्र-ऐ-यार चले
[क़फ्फास : Imprisonment; सबा : Breeze; बहर : Earth]

कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब सर-ऐ-काकुल से मुश्कबार चले
[काकुल : Curls; मुश्कबार : Scented]

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल गरीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे गमगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत संवार चले
[आक़बत : Future]

हुज़ूर-ऐ-यार हुई दफ्तर-ऐ-जुनून की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले

मकाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ऐ-यार से निकले तो सू-ऐ-दार चले

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क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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