ज़िक्र उस परीवश का
Tuesday, September 16, 2008
नज़्म : मिर्जा ग़ालिब
ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयां अपना
बन गया रकीब आख़िर था जो राज़दां अपना
[परीवश : fairy; रकीब : enemy; राज़दां : friend]
मय वो क्यों बहुत पीते बज्म-ऐ-गैर में यारब
आज ही हुआ मंजूर उन को इम्तिहान अपना
मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से इधर होता काश के मकान अपना
दे वो जिस कदर जिल्लत हम हँसी में टालेंगे
बारे आशना निकला उनका पासबान अपना
दर्द-ऐ-दिल लिखूँ कब तक? जाऊं उन को दिखला दूँ
उंगलियाँ फिगार अपनी खामाखूँचाकान अपना
[फिगार : wounded; खाम : immature; खामाक्हूँ : young blood]
घीसते घीसते मिट जाता आप ने अबस बदला
नंग-ऐ-सजदा से मेरे संग-ऐ-आस्तां अपना
ता करे न गमाजी, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में हम ने हम-ज़बान अपना
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमान अपना
[दाना : wise; यकता : unique]
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