आह मुहब्बत!

Thursday, September 11, 2008

मुहब्बत
बहार के फूलों की तरह मुझे अपने जिस्म के रोयें-रोयें से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने-आप पर एक
ऐसे बजरे गुमान हो रहा है जिसके रेशमी बादबान
ताने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके आहिस्ता-आहिस्ता दूर-दूर
पुर सुकून झीलों
रोशन पहाडों और
फूलों से ढंके हुए गुमनाम जज़ीरों की तरफ़ लिए जा रहे हों
वह और मैं
जब खामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फाज में
जुगनुओं की मानिंद रह-रहकर चमकते दिखायी देते हैं
हमारी गुफ्तगू की ज़बान
वही है जो
दरख्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है
यह घने जंगल
और तारीक रात की गुफ्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आंसू छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत!

-मीना कुमारी

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बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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