दिन गुज़रता नज़र नहीं आता

Thursday, September 11, 2008

दिन गुज़रता नज़र नहीं आता
रात काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के भी इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती

अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक खौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आँख से यह छन पिघल न जाएँ कहीं
पलक-पलक ने जिसे रह से उठाया है

शाम का यह उदास सन्नाटा
धुंधलका, देख, बढता जाता है
नहीं मालूम यह धुआं क्यों है
दिल तो खुश है की जलता जाता है

तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों के तरन्नुम को चुरा लायी है
किसकी आगोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बाहों से तू शबनम उठा लायी है

-मीना कुमारी

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यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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