एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा हो बैठा

Friday, September 12, 2008

नज़्म : फरहत शहजाद

एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा हो बैठा
मैं ने जो संग तराशा वोह खुदा हो बैठा

उठ के मंजिल ही अगर आए तो शायद कुछ हो
शौक़-ऐ-मंजिल में मेरा आबलापा हो बैठा
[आबलापा : Blisters]

मसलहत छीन गई कुव्वत-ऐ-गुफ्तार मगर
कुछ न कहना ही मेरा मेरी सदा हो बैठा
[मसलहत : Wisdom; कुव्वत : Strength; गुफ्तार : Conversation]

शुक्रिया ऐ मेरे कातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तूने दिया था वो दवा हो बैठा

जाने 'शहजाद' को मिनजुम्ला-ऐ-आदा पाकर
हूक वो उट्ठी के जी तन से जुदा हो बैठा
[मिनजुम्ला--adaa : Half Hearted, हूक : Shooting Pain]

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यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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