अहल-ऐ-दिल और भी हैं

Friday, September 12, 2008

नज़्म : साहिर लुधियानवी

अहल-ऐ-दिल और भी हैं अहल-ऐ-वफ़ा और भी हैं
एक हम ही नहीं दुनिया से खफा और भी हैं

क्या हुआ गर मेरे यारों की ज़बानें चुप हैं
मेरे शाहिद मेरे यारों के सिवा और भी हैं
[शाहिद : witness]

हम पे ही ख़त्म नहीं मसलक-ऐ-शोरीदासरी
चाक-ऐ-दिल और भी है चाक-ऐ-काबा और भी हैं
[मसलक--शोरीदासरी : rebellious ways; काबा : long gown]

सर सलामत है तो क्या संग-ऐ-मलामत की कमी
जान बाकी है तो पैकान-ऐ-काजा और भी हैं
[मलामत : accusations; पैकान : arrow; काजा : death]

मुंसिफ-ऐ-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाए
लोग कहते हैं के अरबाब-ऐ-जफा और भी हैं
[वहदत : unity]

2 comments:

Tarun September 12, 2008 at 11:41 PM  

आपका स्वागत है, शुभकामनाऐँ.

Arsh September 13, 2008 at 12:44 AM  

dhanyawaad tarun jee :)

क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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