इश्क

Thursday, September 11, 2008

कमीना...बेवफा...बदजात...जालिम
कमबख्त तुम याद आते हो
तो कितने ही लफ्ज़ -
मेरी छाती की आग चाटते
आग थूकते
मेरे मुंह से निकलते...

बदन का मांस
जब गीली मिटटी की तरह होता
तो सारे लफ्ज़ -
मेरे सूखे हुए होटों से झरते
और मिटटी में
बीजों की तरह गिरते...

मैं थकी हुयी धरती की तरह
खामोश होती
तो निगोड़े
मेरे अंगों में से उग पड़ते
निर्लज्ज
फूलों की तरह हँसते
और मैं -
एक काले कोस जैसी
महक महक जाती...

-अमृता प्रीतम

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क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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