हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता

Monday, October 13, 2008

नज़्म - अहमद फ़राज़
हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता
[गौहर : pearl]

वो तो दुनिया को मेरी दीवानगी खुश आ गायी
तेरे हाथों में वगरना पहला पत्थर देखता

आँख में आंसू जड़े थे पर सदा तुझ को न दी
इस तवक्को पर की शायद टू पलट कर देखता

मेरी किस्मत की लकीरें मेरे हाथों में न थीं
तेरे माथे पर कोई मेरा मुक़द्दर देखता

जिंदगी फैली हुयी थी शाम-ऐ-हिज्राँ की तरह
किस को इतना हौसला था कौन जी कर देखता

डूबने वाला था और साहिल पे चेहरों का हुजूम
पल की मोहलत थी मैं किस को आँख भर के देखता

तू भी दिल को इक लहू की बूंद समझा है 'फ़राज़'
आँख गर होती तो कतरे में समंदर देखता

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बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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