हम के ठहरे अजनबी

Monday, October 6, 2008

नज़्म - फैज़ अहमद फैज़
हम के ठहरे अजनबी इतने मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाकातों के बाद
[मदारातों : hospitality]

कब नज़र में आयेगी बेदाग़ सब्जे की बहार
खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

दिल तो चाहा पर शिकस्त-ऐ-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते मुनाजातों के बाद
[मुनाजातों : prayers]

थे बहुत बेदर्द लम्हें ख़त्म-ऐ-दर्द-ऐ-इश्क के
थीं बहुत बेमहर सुबहें मेहरबान रातों के बाद

उन से जो कहने गए थे "फैज़" जान सदका किए
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद

1 comments:

Roopa May 28, 2011 at 11:11 AM  

thanx a lot for the music.
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क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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