शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
Monday, October 20, 2008
नज़्म - फिराक़ गोरखपुरी
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करोबेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो
ये सुकूत-ए-नाज़, ये दिल की रगों का टूटना
खामोशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो
निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशान, दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म
सुबह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो
हर राग-ऐ-दिल वज्द में आती रहे दुखती रहे
यूं ही उस के जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो
कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो
जिसकी फ़ुरक़त ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़
आज उसी ईसा नफ़स दमसाज़ की बातें करो
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