न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
Tuesday, November 11, 2008
नज़्म - मिर्जा ग़ालिब
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सहीइम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
ख़ार-ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही
मय परस्ताँ ख़ुम-ए-मय मुँह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही
नफ़ज़-ए-क़ैस के है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम-ए-सियहख़ाना-ए-लैला न सही
एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक
नोह-ए-ग़म ही सही, नग़्मा-ए-शादी न सही
न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशार में माने न सही
इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबाँ ही ग़नीमत समझो
न हुई "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबीई न सही
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