इस बार नहीं ...

Tuesday, December 2, 2008

नज़्म-प्रसून जोशी
इस बार नहीं
इस बार जब वोह छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी खरोंच ले कर आएगी
मैं उसे फू फू कर नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस
बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा,उतरने दूँगा अन्दर गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा
न ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और न ही कहूँगा कि तुम आंखें बंद करलो, गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको हम सबको खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझने देखूँगा, छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड मैं, टेढे मेढे रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
कि पान की पीक और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर से थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है

1 comments:

ओम आर्य February 9, 2009 at 10:32 PM  

sandeep (agar aapka naam yahi hai to) ji, main chahta hoon ki is fehrisht men aapka naam bhi shamil ho kahin. aap apne bhav kisi aur ki rachnaaon men kab tak dhoondhenge.

क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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