वो जो शायर था ...
Sunday, September 13, 2009
नज़्म - गुलज़ार
वो जो शायर था चुप सा रहता थाबहकी बहकी सी बातें करता था
आँखों कानों पे रख के सुनता था
गूँगी खामोशियों की आवाजें
जमा करता था चाँद की
गीली गीली सी नूर की बूँदें
ओक में बंद करके खड़खडाता है
रूखे रूखे से रात के पत्ते
वक़्त के इस जंगल में
कच्चे पक्के से लम्हें चुनता था
हाँ वोही वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की थोडी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं खुदखुशी की है
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