रंजिश ही सही
Monday, September 8, 2008
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दार-ऐ-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
एक उम्र से हूँ लज्ज़त-ऐ-गिरिया से भी महरूम
ए राहत-ऐ-जान मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिल-ऐ-खुशफहमी को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिए आ
-फ़राज़
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