सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
Monday, September 8, 2008
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उस को ख़राब हॉलों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ऐ-नाज़ुक उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र कर देखते हैं
सुना है उस को भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ऐ-फलक से उतर कर देखते हैं
सुना है हश्र हैं उस की गजाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं
सुना है उस की सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुर्माफरोश आँख भर के देखते हैं
सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्जाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उस का
जो सादा दिल हैं बन संवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिजाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ऐ-तसव्वुर से दश्त-ऐ-इमकान में
पलंग जावे उस की कमर के देखते हैं
सुना है उस के बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायें क़तर के देखते हैं
वोह सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ऐ-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफे समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटाता है काफिला दिल का
सो रहरवां-ऐ-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उस के शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैराहन उसे देखे
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियां हीं सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उस के शहर में ठहरें की कूच कर जाएँ
'फ़राज़' आओ सितारे सफर के देखते हैं
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