पढा लिखा अगर होता खुदा अपना

Saturday, September 6, 2008

मैं जितनी भी ज़बानें जानता था
वो सारी आज़माईं हैं
खुदा ने एक भी समझी नहीं अब तक
ना वो गर्दन हिलाता है, ना वो हुंकारा ही भरता है

कुछ ऐसा सोच कर शायद फरिश्तों ही से पढ़वा दे
कभी चाँद की तख्ती पे लिख देता हूँ शेर गालिब का
धो देता है या कुतर के उसे फांक जाता है
पढा लिखा अगर होता खुदा अपना
न होती गुफ्तगू तो कम से कम
चिट्ठी का आना जाना तो लगा रहता

-गुलज़ार

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यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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