पढा लिखा अगर होता खुदा अपना
Saturday, September 6, 2008
मैं जितनी भी ज़बानें जानता था
वो सारी आज़माईं हैं
खुदा ने एक भी समझी नहीं अब तक
ना वो गर्दन हिलाता है, ना वो हुंकारा ही भरता है
कुछ ऐसा सोच कर शायद फरिश्तों ही से पढ़वा दे
कभी चाँद की तख्ती पे लिख देता हूँ शेर गालिब का
धो देता है या कुतर के उसे फांक जाता है
पढा लिखा अगर होता खुदा अपना
न होती गुफ्तगू तो कम से कम
चिट्ठी का आना जाना तो लगा रहता
-गुलज़ार
0 comments:
Post a Comment