कितनी गिरहें खोली हैं मैंने

Tuesday, September 9, 2008

इस नज़्म में गुलज़ार साब ने औरत के साथ किसी चीज जैसे सुलूक के दर्द को बहुत ही खूबसूरती से बयाँ किया है. पहली बार सुनते ही दिल को छू गए अल्फाज़गुलज़ार साब हर नज़्म में हैरत में डाल देते हैं. हर बार यही यकीन होता है कि इससे बेहतर इस मसले को कोई नहीं कह सकताइस नज़्म को 'चाँद परोसा है' में मिताली सिंह ने बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में गाया हैगुलज़ार साब की आवाज़ में जो recitation है उसका भी कोई जबाब नहींगौर फरमाइए -

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कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं
पाँव में पायल, बाहों में कंगन
गले में हंसली, कमरबंद छल्ले और बिछुए
नाक कान छिदवाये गए हैं
और सेवर ज़ेवर कहते कहते
रीत रिवाज़ की रस्सियों से मैं जकड़ी गई
उफ़ ... कितनी तरह मैं पकड़ी गई
अब छिलने लगे हैं हाथ पाँव
और कितनी खराशें उभरें हैं
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी रसियाँ उतरी हैं

कितनी गिरह खोली हैं मैंने
कितनी गिरह अब बाकी हैं

अंग अंग मेरा रूप रंग
मेरे नक्श नैन मेरे बोल बैन
मेरी आवाज़ में कोयल की तारीफ हुयी
मेरी जुल्फ साँप मेरी जुल्फ रात
जुल्फों में घटा मेरे लब गुलाब
आँखें शराब
गजलें और नज्में कहते कहते
मैं हुस्न और इश्क के अफसानो में
जकड़ी गई, जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई

मैं पूछू ज़रा, मैं पूछू ज़रा
आंखों में शराब दिखे सबको
आकाश नहीं देखा कोई
सावन भादों तो दिखें मगर
क्या दर्द नहीं देखा कोई
क्या दर्द नहीं देखा कोई
फन की छीनी सी चादर में
बुत छील गए उरयानी के
तागा तागा करके पोशाक उतारी गई
मेरे जिस्म पे फनकी मश्क हुयी
और आर्ट का ना कहते कहते
संग-ऐ-मर्मर में जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई, पकड़ी गई
बतलाये कोई, बतलाये कोई
बतलाये कोई, बतलाये कोई
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं
-गुलज़ार

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यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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