ए जज्ब-ऐ-निहां और कोई है के वही है

Monday, September 15, 2008

नज़्म - फिराक़ गोरखपुरी

ए जज्ब-ऐ-निहां और कोई है के वही है
खिलवत-कदा-ऐ-दिल में आवाज़ हुई है
[जज्ब--निहां : Hidden Attraction; खिलवत : Solitude; कदा : House]

कह दे तो ज़रा सर तेरे दामन में छिपा लूँ
और यूं तो मुक़द्दर में मेरे बे-वतनी है

वो रंग हो या बू हो के बाद-ऐ-सहरी हो
ए बाग़-ऐ-जहाँ जो भी यहाँ है सफारी है

ये बारिश-ऐ-अनवर ये रंगीनी-ऐ-गुफ्तार
गुल-बारी-ओ-गुल-सिरी-ओ-गुल-पैराहनी है

ए जिंदगी-ऐ-इश्क मैं समझा नहीं तुझ को
जन्नत भी जहन्नुम भी ये क्या बूलाजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की इक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजें हैं मय-ऐ-सुर्ख कि या खाट-ऐ-दहन हैं
लब है कि कोई शोला-ऐ-बर्क-ऐ-अम्बी है

जागे हैं "फिराक़" आज गम-ऐ-हिजरां में ता-सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आँख लगी है

1 comments:

रवि रतलामी September 16, 2008 at 12:16 PM  

क्या इसे किसी ने गाया है? यदि हाँ तो इंटरनेट पर उसकी कड़ी मिल जाए तो क्या कहने.

क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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