अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं
Monday, September 15, 2008
नज़्म - फिराक़ गोरखपुरी
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूं ही कभू लब खोले हैंपहले "फिराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औकात
जाओ न तुम इन खुश्क आंखों पर हम रातों को रो ले हैं
फितरत मेरी इश्क-ओ-मुहब्बत किस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख्वाब-आवर आलम मौज-ऐ-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
उफ़ वो लबों पर मौज-ऐ-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलम जुम्बिश-ऐ-मिज़गां जब फिटने पर तोले हैं
इन रातों को हरीम-ऐ-नाज़ का इक आलम होए है नदीम
खल्वत में वो नर्म उंगलियाँ बंद-ऐ-काबा जब खोले हैं
[हरीम : House; खल्वत : solitude; बंद-ऐ-काबा : buttons of the dress]
गम का फ़साना सुनाने वालो आख़िर-ऐ-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं
हम लोग अब तो पराये से हैं कुछ तो बताओ हाल-ऐ-"फिराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं
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