ईंधन
Sunday, September 14, 2008
नज़्म - गुलज़ार
हम उपलों पर शक्लें गूंधा करते थेछोटे थे, मान उपले थापा करती थी
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगडी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पर खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हे घेर के बैठा करते थे
किस उपले की बारी आई
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद मैं
शमशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक़्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया !
From पुखराज, Roopa (1994)
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