खुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था
Friday, September 12, 2008
नज़्म : फरहत शहजाद
दहकती आग थी तन्हाई थी फ़साना था
ग़मों ने बाँट लिया मुझे यूं आपस में
के जैसे मैं कोई लूटा हुआ खजाना था
ये क्या के चंद ही क़दमों पे थक के बैठ गए
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था
मुझे जो मेरे लहू में डुबो के गुज़रा है
वो कोई गैर नहीं यार एक पुराना था
खुद अपने हाथ से "शहजाद" उस को काट दिया
के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था
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