सकूत-ऐ-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है
Wednesday, September 17, 2008
नज़्म : फिराक़ गोरखपुरी
सकूत-ऐ-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा हैसुखन की शमा जलाओ बहुत अँधेरा है
[सकूत : silence]
दयार-ऐ-गम में दिल-ऐ-बेकरार छूट गया
संभल के ढूढने जाओ बहुत अँधेरा है
ये रात वो के सूझे जहाँ न हाथ को हाथ
खयालो दूर न जाओ बहुत अँधेरा है
लातों को चहरे पे डाले वो सो रहा है कहीं
ज़या-ऐ-रुख को चुराओ बहुत अँधेरा है
[ज़या : radiance]
हवाएं नीम शबी हों की चादर-ऐ-अंजुम
नक़ाब रुख से उठाओ बहुत अँधेरा है
[नीम शबी : midnight; चादर-ऐ-अंजुम : sheet of stars]
शब-ऐ-सियाह में गुम हो गई है राह-ऐ-हयात
क़दम संभल के उठाओ बहुत अँधेरा है
गुज़श्ता अहद की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग जलाओ बहुत अँधेरा है
[गुज़श्ता : past]
थी एक उचकती हुई नींद जिंदगी उसकी
फिराक़ को न जगाओ बहुत अँधेरा है
[उचकती : disturbed]
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