आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
Saturday, September 27, 2008
मिर्जा ग़ालिब की लिखी एक और नज़्म जगजीत सिंह की रेशमी आवाज़ में पेश-ऐ-खिदमत है -
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक
दाम हर मौज में है हल्क़ा-ऐ-साद-ऐ-नहंग
देखें क्या गुज़रे है कतरे पे गौहर होने तक
[दाम : trap; हल्क़ा : ring; साद : hundred; नहंग : crocodile; गौहर : pearl]
आशिकी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं खून-ऐ-जिगर होने तक
हम ने माना के तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक
[तगाफुल : neglect]
परतव-ऐ-खूर से है शबनम को फना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक
[परतव-ऐ-खूर : sun rays;]
यक नज़र बेश नहीं फुर्सत-ऐ-हस्ती गाफिल
गरमी-ऐ-बज्म है इक रक्स-ऐ-शरार होने तक
[बेश : excess; गाफिल : ignorant;]
गम-ऐ-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक
[जुज़ : other than; मर्ग : डेथ]
1 comments:
गम-ऐ-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक
हमें तो सिर्फ इसी जुज़ के बारे में ही सुना था...अब आपने तो जुज़ की कई किस्में बता दी हैं...
ये तो हुई थोड़ी सी हलकी फुलकी बात लेकिन सच तो ये है के आपका ये ब्लॉग ग़ज़ल प्रेमियों के लिए मक्का से कम नहीं है...ये एक अभूत पूर्व प्रयास है जिसकी आज नहीं तो कल सर्वत्र चर्चा होगी और नए पुराने ग़ज़ल लेखकों के लिए लेखन का मार्ग प्रशश्त करेगी. इस निस्वार्थ किये गए कार्य के लिए आपकी जितनी प्रशंशा की जाए कम है.
नीरज
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