सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
Monday, September 15, 2008
नज़्म - फिराक गोरखपुरी
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ऐ-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
यूं तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ऐ-इश्क
मगर ए दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
मुद्दतें गुज़रीं तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
ये भी सच है के मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है के तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ऐ-नाज़ से उठाता भी नहीं
बदगुमान हो के मिल आई दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
शिकवा-ऐ-जोर करे क्या कोई उस शोख से जो
साफ़ कायल भी नहीं साफ़ मुकरता भी नहीं
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ए दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ऐ-बेजान भी नहीं
बात ये है की सुकून-ऐ-दिल-ऐ-वहशी का मक़ाम
कुंज-ऐ-ज़िन्दाँ भी नहीं वुसा'अत-ऐ-सेहरा भी नहीं
[कुंज-ऐ-जिन्दान=prison; वुसा'अत=expanse]
मूँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते, के 'फिराक'
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
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