मेरा माजी

Thursday, September 11, 2008

मेरा माजी
मेरी तनहाई का ये अंधा शिगाफ
ये के साँसों की तरह मेरे साथ चलता रहा
जो मेरी नब्ज़ की मानिंद मेरे साथ जिया
जिसको आते हुऐ जाते हुऐ बेशुमार लम्हे
अपनी संगलाख उँगलियों से गहरा करते रहे, करते गए
किसी की ओक पा लेने को लहू बहता रहा
किसी को हमनफस कहने की जुस्तुजू में रहा
कोई तो हो जो बेसाख्ता इसको पहचाने
तड़प के पलटे, अचानक इसे पुकार उठ्ठे
मेरे हम-शाख
मेरे हम-शाख मेरी उदासियों के हिस्सेदार
मेरे अधूरेपन के दोस्त, मेरे अकेलेपन
तमाम ज़ख्म जो तेरे हैं
मेरे दर्द तमाम
तेरी कराह का रिश्ता है मेरी आहों से
तू एक मस्जिद-ऐ-वीरान है, मैं तेरी अजान
अजान जो अपनी ही वीरानगी से टकरा कर
ढकी छुपी हुई बेवा ज़मीन के दामन पर
परहे नमाज़ खुदा जाने किसको सजदा करे
[माजी : Past; शिगाफ : Crack; संगलाख : Rocky; ओक : Refuge; बेसाख्ता : Spontaneous]

-मीना कुमारी

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क्या मिलेगा यहाँ ?

यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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