है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और

Thursday, September 4, 2008

है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमान और

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जुबां और

आबरू से है क्या उस निगाह-ए-नाज़ को पैबंद
है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमान और

तुम शहर में हो तो हमें क्या गम जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जान और

हर चाँद सुबुकदस्त हुए बुतशिकनी में
हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिरां और

है खून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते कई जो दीदा-ए-खूँनाबाफिशां और

मरता हूँ इस आवाज़ पे हर चाँद सर उड़ जाए
जल्लाद को लेकिन वो कहे जाए कि हाँ और

लोगों को है खुर्शीद-ए-जहां ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग-ए-निहां और

लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन
करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फुगाँ और

पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले
रुकती है मेरी ताबा तो होती है रवां और

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयान और

-ग़ालिब

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बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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