वो जो हम में तुम में करार था

Monday, September 15, 2008

नज़्म - मोमिन खान

वो जो हम में तुम में करार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो

वो नए गिले वो शिकायतें वोह मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के न याद हो

कोई बात ऎसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयान से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के न याद हो

सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो के न याद हो

हुए इत्तेफाक से गर बहम, वो वफ़ा जताने को दम-बा-दम
गिला-ऐ-मलामत-ऐ-अर्क़बा, तुम्हें याद हो के न याद हो

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेशतर, वो करम के हाथ मेरे हाथ पर
मुझे सब हैं याद ज़रा ज़रा, तुम्हें याद नो की न याद हो

कभी बैठे सब हैं जो रू-बा-रू तो इशारतों ही से गुफ्तगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो की न याद हो

वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो की न याद हो

जिसे आप गिनते थे आशना जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूँ "मोमिन"-ऐ-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो

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बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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