पूछते हो तो सुनो

Wednesday, September 10, 2008

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरात की सदके की सहर होती है

साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है

जैसे जागी हु’ई आंखों में चुभें कांच के ख्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है

ग़म ही दुश्मन है मेरा ग़म ही को दिल ढूँढता है
एक लम्हे की जुदा’ई भी अगर होती है

एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुश्बू
कभी मंजिल कभी तम्हीद-ऐ-सफर होती है
(मरकज़ : center; तम्हीद : prelude/preamble)

-मीना कुमारी

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बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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