अशार मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
Thursday, September 18, 2008
नज़्म - जान निसार अख्तर
अशार मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आंखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे
ये ख्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
1 comments:
Nice compilation... Keep up the good work :)
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