क्या रुखसत-ऐ-यार की घड़ी थी

Friday, September 12, 2008

क्या रुखसत-ऐ-यार की घड़ी थी
हंसती हुई रात रो पडी थी

हम ख़ुद ही हुए तबाह वरना
दुनिया को हमारी क्या पडी थी

ये ज़ख्म हैं उन दिनों की यादें
जब आप से दोस्ती बड़ी थी

जाते तो किधर को तेरे वहशी
ज़ंजीर-ऐ-जुनून कड़ी पड़ी थी

गम थे कि 'फ़राज़' आंधियां थी
दिल था कि 'फ़राज़' पंखुडी थी

-फ़राज़

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यहाँ आपको मशहूर शायरों की बेहतरीन नज़में पढने को मिलेंगीइस जगह का मकसद उन बेशुमार नगीनों पे ज़िक्र करना और उनको बेहतर तरीके से समझना हैजहाँ भी मुमकिन है, वहाँ ग़ज़ल को संगीत के साथ पेश किया गया है

बेहतरीन

जब हम चले तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो, ज़मीन चले आसमान चले
जब हम रुके साथ रुके शाम-ऐ-बेकसी
जब तुम रुको, बहार रुके चांदनी रुके
-जलील मानकपुरी

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