हजारों ख्वाहिशें ऐसी
Saturday, September 27, 2008
मिर्जा ग़ालिब की कलम से निकली एक बेहद ही खूबसूरत नज़्म, जी चाहता है कि बस अशार और निकलते रहे और हम यूँ ही इस मदमस्त शायरी का लुफ्त उठाते रहे। पेश है जगजीत सिंह साब की आवाज़ में -
हजारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाइश पे दम निकलेबहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यूँ मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-बा-दम निकले
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
[खुल्द : Paradise]
भरम खुल जाए जालिम तेरे क़ामत की दराजी का
अगर इस तुर्रा-ऐ-पुरापेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
[क़ामत : stature; तुर्रा : ornamental tassel worn in the turban; पेच-ओ-ख़म : curls in the hair]
मगर लिखवाये कोई उसको ख़त तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रक्खर कलम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-अशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ से जाम-ऐ-जम निकले
[मनसूब : association; बादाशामी : related to drinks]
हुई जिनसे तवक्को खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी जियादा खस्ता-ऐ-तेग-ऐ-सितम निकले
[तवक्को : expectation; तेग : sword]
मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
ज़रा कर जोर सीने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले
कहाँ मैखाने का दरवाजा 'ग़ालिब' और कहाँ वायज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले
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